जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!

इश्वर की लीला
अपरम्पार है
जो बह रही है
कैसी अद्भुत धार है
चेहरे पर
मुस्कान लिए
जीवन जय करते हैं
हौसले की धूप खिली है
और सरिता की आँखों से
मोती झरते हैं!

आँखों से छलकता
असीम प्यार है
कैसी अनोखी
यह बयार है
अंगारों पर
पूर्ण कौशल के साथ
चरण धरते हैं
पीर से भरा हृदय है
और बादल औरों की
पीर हरते हैं!

पीड़ा के प्रवाह में
ईश-स्मरण साकार है
तटों को बांधे हुए
मझधार है
जीवन नौका खेते हुए
सुख-दुःख की
मार सहते हैं
बिखरते हुए तटों पे
लहर कितनी ही
कथा कहते हैं!

इन कथाओं में
अद्भुत सार है
आने-जाने की महिमा
अपरम्पार है
जब तक हैं धरा पर
चलो जल कर
राहें रोशन करते हैं
जियें यूँ कि
जीना-मरना सब सार्थक हो जाए
जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!

39 टिप्पणियाँ:

mridula pradhan 2 दिसंबर 2011 को 9:58 am बजे  

bahut achchi lagi.....

Chandrasekhar 2 दिसंबर 2011 को 10:01 am बजे  

'जब तक हैं धरा पर
चलो जल कर
राहें रोशन करते हैं'
इन सुन्दर पंक्तियों ने जीवन को उद्देश्यपूर्ण राह दिखा दी ..
शुभकामनायें ..

आनंद 2 दिसंबर 2011 को 10:12 am बजे  

जियें यूँ कि
जीना-मरना सब सार्थक हो जाए
जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!

मैंने कल दो पंक्तिया लिखी थी मुझे लगता है उनको शेयर करने का इससे अच्छा स्थान और कहीं नही है ..
बूँद बूँद अमृत है जीवन कुछ ही इसको पी पाते हैं
प्रेम सभी को मिलता लेकिन कुछ ही इस को जी पाते हैं
सादर प्रणाम !

Udaya 2 दिसंबर 2011 को 10:12 am बजे  

सार्थक और सरल किन्तु विशेष:)
.
.

जो मरने से डरते हैं; वो रोज़ मरते हैं
जो रोज़ जीते हैं; वो हँसते हुए मरते हैं

meeta 2 दिसंबर 2011 को 10:39 am बजे  

Beautiful thought expressed beautifully !!

ज्ञानचंद मर्मज्ञ 2 दिसंबर 2011 को 10:54 am बजे  

कविता एक अनुत्तरित मगर सार्थक प्रश्न छोड़ती है जो मन को अन्दर तक कुरेदता है !
सुन्दर अभिव्यक्ति !
आभार !

ऋता शेखर 'मधु' 2 दिसंबर 2011 को 11:19 am बजे  

सकारात्मक सोच कौ सार्थक अभिव्यक्ति...बहुत अच्छी लगी|

रश्मि प्रभा... 2 दिसंबर 2011 को 11:24 am बजे  

पीड़ा के प्रवाह में
ईश-स्मरण साकार है
तटों को बांधे हुए
मझधार है
जीवन नौका खेते हुए
सुख-दुःख की
मार सहते हैं
बिखरते हुए तटों पे
लहर कितनी ही
कथा कहते हैं!
.......ईश्वर सारी कथाओं का सार देते हैं , उदासी का कोहरा हटा मुस्कान देते हैं

सदा 2 दिसंबर 2011 को 11:47 am बजे  

जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!
सार्थक व सटीक लेखन ...।

Yashwant R. B. Mathur 2 दिसंबर 2011 को 12:10 pm बजे  

जब तक हैं धरा पर
चलो जल कर
राहें रोशन करते हैं
जियें यूँ कि
जीना-मरना सब सार्थक हो जाए
जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं

बेहतरीन पंक्तियाँ हैं।

सादर

अंजू शर्मा 2 दिसंबर 2011 को 12:26 pm बजे  

पीड़ा के प्रवाह में
ईश-स्मरण साकार है
तटों को बांधे हुए
मझधार है..........बहुत ही सुंदर और सकारात्मक पंक्तियाँ.....ईश की लीला के रूप अनेक है, आपकी भावाभिव्यक्ति में उन्हें महसूस किया......बधाई

Nirantar 2 दिसंबर 2011 को 12:37 pm बजे  

जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं

uskaa andaaz niraalaa hai
kab kyaa ,kyon kartaa
wo hee jaantaa hai

Prakash Jain 2 दिसंबर 2011 को 1:07 pm बजे  

जियें यूँ कि
जीना-मरना सब सार्थक हो जाए
जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!

Bahut khub...

www.poeticprakash.com

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') 2 दिसंबर 2011 को 1:24 pm बजे  

जीवन नौका खेते हुए
सुख-दुःख की
मार सहते हैं
बिखरते हुए तटों पे
लहर कितनी ही
कथा कहते हैं!

बड़ी सुन्दर रचना...
सादर...

Maheshwari kaneri 2 दिसंबर 2011 को 2:56 pm बजे  

जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!..बहुत सुन्दर और सटीक बात कही..बहुत खूब..

Kailash Sharma 2 दिसंबर 2011 को 2:59 pm बजे  

जियें यूँ कि
जीना-मरना सब सार्थक हो जाए
जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!

.....बहुत सच कहा है...बहुत प्रेरक और सुंदर अभिव्यक्ति..आभार

विभूति" 2 दिसंबर 2011 को 3:11 pm बजे  

बिलकुल सच्ची बात कही आपने.....

अनामिका की सदायें ...... 2 दिसंबर 2011 को 6:22 pm बजे  

sunder soch me gunthi sunder abhivyakti.

मनोज कुमार 2 दिसंबर 2011 को 7:25 pm बजे  

सार्थक प्रस्तुति।

Atul Shrivastava 2 दिसंबर 2011 को 7:42 pm बजे  

ये जीवन है....

Atul Shrivastava 2 दिसंबर 2011 को 7:42 pm बजे  

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा शनिवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!चर्चा मंच में शामिल होकर चर्चा को समृद्ध बनाएं....

डॉ. मोनिका शर्मा 3 दिसंबर 2011 को 4:14 am बजे  

जब तक हैं धरा पर
चलो जल कर
राहें रोशन करते हैं
जियें यूँ कि
जीना-मरना सब सार्थक हो जाए

बहुत बढ़िया रचना

कुमार संतोष 3 दिसंबर 2011 को 6:14 am बजे  

Sunder rachna . Gahrey bhaw se bhari ye kavita bahut pasand aai.

संगीता स्वरुप ( गीत ) 3 दिसंबर 2011 को 6:27 am बजे  

जब तक हैं धरा पर
चलो जल कर
राहें रोशन करते हैं
जियें यूँ कि
जीना-मरना सब सार्थक हो जाए
जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!

सकारात्मक सन्देश देती अच्छी प्रस्तुति

vijay kumar sappatti 3 दिसंबर 2011 को 7:52 am बजे  

अनुपमा जी
आपकी कविता में प्रेम तथा अध्यात्म की गहराई छाई हुई है ..और यही बात इस कविता को बेहतर बना रही है .

बधाई !!
आभार
विजय
-----------
कृपया मेरी नयी कविता " कल,आज और कल " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html

Anita 3 दिसंबर 2011 को 8:05 am बजे  

जब तक हैं धरा पर
चलो जल कर
राहें रोशन करते हैं
जियें यूँ कि
जीना-मरना सब सार्थक हो जाए
जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!
सच ही तो है मरने के डर से इंसान जी भी नहीं पाता और जीने की लालसा में मृत्यु को निमंत्रण दे आता है.. सुंदर कविता!

नीरज गोस्वामी 3 दिसंबर 2011 को 11:24 am बजे  

वाह...बेजोड़ भावाभिव्यक्ति...बधाई स्वीकारें

नीरज

Jeevan Pushp 3 दिसंबर 2011 को 12:15 pm बजे  

जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!

इस पंक्ति पे शायद कुछ समय के
लिए सब मौन हो जायेगा..!

vandana gupta 3 दिसंबर 2011 को 12:41 pm बजे  

सार्थक अभिव्यक्ति।

RAJESH KUMAR 3 दिसंबर 2011 को 7:06 pm बजे  

jeet jee ham kyu roj marte hai?
is sawal ko jis din manav samajh jata hai wo mahamanav ho jata hai..........

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया 3 दिसंबर 2011 को 7:43 pm बजे  

अनुपमाजी,..
वाह!!!बहुत खूब बेहतरीन पोस्ट ..बधाई....
मेरे नए पोस्ट -जूठन-में आपका इंतजार है

Smart Indian 4 दिसंबर 2011 को 3:06 am बजे  

बहुत सुन्दर! तिल-तिल मरने और शहादत पाने में लम्बी दूरी है।

abhi 4 दिसंबर 2011 को 7:08 am बजे  

इश्वर की लीला सच में अपरम्पार है..
वैसे, अंतिम सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है!! :)

महेन्‍द्र वर्मा 4 दिसंबर 2011 को 10:43 am बजे  

जब तक हैं धरा पर
चलो जल कर
राहें रोशन करते हैं

प्रेरक पंक्तियां।
बहुत बड़ी सीख देती हुई सुंदर कविता।

मेरा साहित्य 5 दिसंबर 2011 को 3:30 pm बजे  

ओ पेड़...
क्या कहूँ
सदा तेरी ख़ुशी के लिए
मैं प्रार्थनारत रहूँ
और मिले जो
अभीष्ट तुम्हे
बन कर ख़ुशी के आंसू
तेरे नयनों से बहूँ
sunder likha hai
rachana

दिगम्बर नासवा 7 दिसंबर 2011 को 1:21 pm बजे  

खुद जल के राहे रोशन करना आसान नहीं होता ... बहुत ही लाजवाब रचना है ...

प्रेम सरोवर 8 दिसंबर 2011 को 3:25 am बजे  

आपका पोस्ट मन को प्रभावित करने में सार्थक रहा । बहुत अच्छी प्रस्तुति । मेर नए पोस्ट ' आरसी प्रसाद सिंह ' पर आकर मेरा मनोबल बढ़ाएं । धन्यवाद ।

dinesh aggarwal 9 दिसंबर 2011 को 5:00 am बजे  

अनुपमा जी, अभिवादन एवं सुन्दर अभिव्यक्ति के लिये बधाई।

***Punam*** 16 दिसंबर 2011 को 3:47 pm बजे  

जियें यूँ कि
जीना-मरना सब सार्थक हो जाए
जीते जी हम क्यूँ(?)रोज मरते हैं!

just beautiful......

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