स्मित मुस्कान लिए मुरझा जाना... यही तो चमत्कार है!

समृद्ध हो शब्दों की दुनिया
उन्हें बुनने का हुनर भी हो
मगर न हो कथ्य
तो सब बेकार है...
धारा का क्या? वो तो बीच में बहती है...
न इस पार... न उस पार है!

कहने को कुछ खरा हो तो
शब्दावलियाँ स्वयं चली आती हैं
भाव कर लेते हैं भाषा का आवाहन
भावों का शब्दों पर अधिकार है...
लेखनी का क्या? वो तो कहती रहती है...
कभी नीली... तो कभी काली उसकी धार है!

देखो, उनका हाव भाव ही
लिख जाता है स्वर्ण कलम से हवाओं में
खुशबू का काव्य
फूलों का अद्भुत संसार है...
मिट जाने का क्या? वादियाँ हर पल खुश रहती है...
स्मित मुस्कान लिए मुरझा जाना... यही तो चमत्कार है!

उनके पास सच्चे सन्देश हैं
खरा है उनका वक्तव्य
पढ़िए उन्हें... भाषा भी बड़ी ग्राह्य है उनकी
प्रकृति हमारी संवेदनाओं का ही विस्तार है...
व्यस्तताओं का क्या? वह तो आजीवन बनी रहती है...
जीवन की भागमभाग में... कहाँ कोई एतवार है!

लिख रहे हैं शब्द
और गुन रहे हैं अर्थ
जो खो जाती यूँ ही कहीं, वो छवि-
मन के किसी कोने में अब साकार है...
कविता का क्या? वो तो चलती रहती है...
कभी वह मुट्ठी भर रेत... तो कभी पर्वताकार है!

23 टिप्पणियाँ:

नीरज गोस्वामी 9 मई 2012 को 12:42 pm बजे  

प्रकृति हमारी संवेदनाओं का ही विस्तार है...
व्यस्तताओं का क्या? वह तो आजीवन बनी रहती है...
जीवन की भागमभाग में... कहाँ कोई एतवार है!

वाह..कमाल की बात कही है आपने...अद्भुत रचना...बधाई स्वीकारें..

नीरज

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया 9 मई 2012 को 12:53 pm बजे  

कविता का क्या? वो तो चलती रहती है...
कभी वह मुट्ठी भर रेत... तो कभी पर्वताकार है,...

बहुत सुंदर बात कही आपने,...बधाई

my recent post....काव्यान्जलि ...: कभी कभी.....

Meeta Pant 9 मई 2012 को 12:58 pm बजे  

उनके पास सच्चे सन्देश हैं
खरा है उनका वक्तव्य
पढ़िए उन्हें... भाषा भी बड़ी ग्राह्य है उनकी ...
सुन्दर!!

रविकर 9 मई 2012 को 1:29 pm बजे  

बढ़िया प्रस्तुतीकरण |
आभार |

Yashwant R. B. Mathur 9 मई 2012 को 1:34 pm बजे  

कविता का क्या? वो तो चलती रहती है...
कभी वह मुट्ठी भर रेत... तो कभी पर्वताकार है!

बहुत ही खूबसूरत और सच्ची बात कहती कविता।


सादर

प्रवीण पाण्डेय 9 मई 2012 को 1:44 pm बजे  

भाव प्रखर हों, शब्द दौड़ते आते हैं,
सज जाने को अपना जोर लगाते हैं।

ऋता शेखर 'मधु' 9 मई 2012 को 1:56 pm बजे  

समृद्ध हो शब्दों की दुनिया
उन्हें बुनने का हुनर भी हो
मगर न हो कथ्य
तो सब बेकार है...

सही बात कही है...

प्रकृति हमारी संवेदनाओं का ही विस्तार है...
व्यस्तताओं का क्या? वह तो आजीवन बनी रहती है...
जीवन की भागमभाग में... कहाँ कोई एतवार है!

वाह!!!

Saras 9 मई 2012 को 3:03 pm बजे  

वाह अनुपमाजी बहुत ही सुन्दर और सच्ची बात कही है आपने ....

विभूति" 9 मई 2012 को 3:43 pm बजे  

लिख रहे हैं शब्द
और गुन रहे हैं अर्थ
जो खो जाती यूँ ही कहीं, वो छवि-
मन के किसी कोने में अब साकार है...
कविता का क्या? वो तो चलती रहती है...
कभी वह मुट्ठी भर रेत... तो कभी पर्वताकार है!बहुत ही सहज शब्दों में कितनी गहरी बात कह दी आपने..... खुबसूरत अभिवयक्ति....

ashish 9 मई 2012 को 4:12 pm बजे  

अद्भुत !

रश्मि प्रभा... 9 मई 2012 को 6:35 pm बजे  

कहने को कुछ खरा हो तो
शब्दावलियाँ स्वयं चली आती हैं
भाव कर लेते हैं भाषा का आवाहन
भावों का शब्दों पर अधिकार है...
लेखनी का क्या? वो तो कहती रहती है...
कभी नीली... तो कभी काली उसकी धार है!... वाह ... बेहतरीन भाव

Satish Saxena 9 मई 2012 को 7:33 pm बजे  

सुंदर......
शुभकामनायें !

मनोज कुमार 9 मई 2012 को 9:11 pm बजे  

कविता मुट्ठी भर रेत से पहाड़ बना देने की क्षमता रखती है। वह चलनी ही चाहिए। चलती रहनी ही चाहिए।

संगीता स्वरुप ( गीत ) 9 मई 2012 को 9:14 pm बजे  

बेहतरीन भाव रचना के ... सुंदर प्रस्तुति

abhi 10 मई 2012 को 4:49 am बजे  

कमाल की बात कही है आपने अनुपमा जी....
कविता बहुत सही लगी मुझे!! :)

वाणी गीत 10 मई 2012 को 5:18 am बजे  

जीवन की भागमभाग में कविताओं की रचना कभी रेत सी , कभी पर्वताकार !
बढ़िया !

Kailash Sharma 10 मई 2012 को 4:42 pm बजे  

कहने को कुछ खरा हो तो
शब्दावलियाँ स्वयं चली आती हैं
भाव कर लेते हैं भाषा का आवाहन
भावों का शब्दों पर अधिकार है...
लेखनी का क्या? वो तो कहती रहती है...

....बिलकुल सच....बहुत सार्थक और सुन्दर रचना...

Anita 11 मई 2012 को 5:27 am बजे  

व्यस्तताओं का क्या? वह तो आजीवन बनी रहती है...
जीवन की भागमभाग में... कहाँ कोई एतवार है!

सचमुच यदि समय निकाल कर चंद क्षण प्रकृति के साथ रहें तो...बहुत सुंदर कविता सदा की तरह !

M VERMA 11 मई 2012 को 8:18 am बजे  

कहने को कुछ खरा हो तो
शब्दावलियाँ स्वयं चली आती हैं
कायम रहे शब्दावलियां .. बहुत सुंदर

vandana gupta 11 मई 2012 को 9:13 am बजे  

वाह सार्थक रचना

Onkar 12 मई 2012 को 7:36 am बजे  

sundar prastuti

रचना दीक्षित 13 मई 2012 को 8:18 am बजे  

प्रकृतिका सन्देश फिजाओं में व्याप्त है और अब समय है उन संदेशों पर ध्यान देना का और उनपर अनुगमन करने का.

सुंदर सामयिक और संवेदनशील प्रस्तुति.

Sawai Singh Rajpurohit 13 मई 2012 को 2:27 pm बजे  

बहुत सुंदर कविता ....बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति....

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